" औरत बनकर जीना भी कोई खेल नहीं
रोज सूरज बनकर निकलना पढ़ता हैं।
चाहें लाख अंधेरे हों
जीवन में रोशनी सबको देनी पढ़ती हैं। "
. . . . . .कल जैसे लड़का देखने की शुरुवात हुई। तो कई रिश्ते आये ,कई पापा की तरफ से गये। कुछ को मैं पसंद नहीं आई,कोई मुझें पसंद नहीं आये। ये सिलसिला करीब 5 - 7 महिने चलता रहा। इन सब में एक रिश्ता ऐसा था जो आज तक मुझे याद हैं उस रिश्ते को मेरी मौसी लेकर आई थी। लड़का अच्छे रहिस घर का था। घर में हम चार जन ही थे, सो सारे ही उनके स्वागत में लग गए ,खूब आव -भगत हुई ढेर सारा नाशता , फल , मिठाई लाई गई ,खिलाए गए।
अब आई लड़की देखने की बारी सो अच्छे से सजा - धजा कर मुझे पेश किया गया जैसे मैं कोई लड़की न हो के वस्तु हूँ ,
" औरत कभी खिलौना नहीं होती
वो तो परमात्मा के बाद वो व्यक्ति हैं।
जो मौत की गोद में जाकर,जिंदगी को जन्म देती हैं। "
उस समय लगता था कि ये रिवाज किसने बनाया होगा कि लड़की को हाथ में चाय की प्लेट लेकर चलना होगाऔर कुछ लोग आपको जज करेंगे की आप कैसे हैं। न आपसे कुछ कहना न आपकी ईच्छा। कुछ मायने नहीं रखता बस उस लड़के और उसके परिवार पर होता हैं कि वो क्या कहते हैं।
सौ उसी कड़ी में लड़के ने मुझसे बात की,कुछ सवाल किये और चले गये। कुछ दिन बाद जवाब आया की
लड़की पसंद नहीं आई। घर में सब उदास हो गये। वजह थी .. . . . . .
लड़की का कद कम हैं ,लड़की नाटी हैं ?
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